64 तंत्रों के नाम
चतु:शती में 64 तंत्रों के नाम और उनके ऊपर 'सौंदर्यलहरी टीका' में प्रदत्त लक्ष्मीधर की व्याख्या इस प्रकार है-
क्र0सं0 1-2 महामाया तंत्र और शंबर तंत्र: इसमें माया, प्रपंच, निर्माण का विवरण है। इसके प्रभाव से द्रष्टा की इंद्रियाँ तदनुरूप विषय को ग्रहण न कर अन्याथा ग्रहण करती हैं। जैसा वस्तु - जगत् में घट है यह द्रष्टा के निकट प्रतिभात होता है- फ़ पटफ़ रूप में। यह किसी न किसी अंश में वर्तमान युग में प्रचलित हिपनॉटिज्म (क्तन्र्द्रददृद्यत्द्मथ्र्) प्रभृति मोहिनी विद्या के अनुरूप है।
क्र0 सं0 3. - योगिनी जाल शंबर : मायाप्रधान तंत्र को शंबर कहा जाता है। इसमें योगिनियों का जाल दिखाई देता है। इसकी साधना करनेवाले के लिये श्मशान प्रभृति स्थानों में उपदिष्ट नियामें का अनुसरण करना पड़ता है।
तत्वशंकर- यह फ़ महेंद्र जाल विद्याफ़ है। इसके द्वारा एक तत्व को दूसरे तत्व के रूप में भासमान किया जा सकता है; जैसे पृथ्वी त्तत्व में जल त व का या जल त व में पृथ्वी तत्व का।
5-12 सिद्ध भैरव, बटुक भैरव, कंकाल भैरव, काल भैरव, कालाग्नि भैरव, योगिनी भैरव, महा भैरव तथा शक्ति भैरव (भैरवाष्टक)। इन ग्रंथों में निधि विद्या का वर्णन है और ऐहक फलदायक कापालिक मत का विवरण है। ये सब तंत्र अवैदिक हैं।
13-20 बहुरूपाष्टक, ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, चामुडा, श्विदूती, (?)। ये सभी शक्ति से उद्भूत मातृका रूप हैं। इन आठ मातृकाओं के विषय में आठ तंत्र लिखे गए थे। लक्ष्मीधर के अनुसार ये सब अवैदिक हैं। इनमें आनुषंगिक रूप से श्री विद्या का प्रसंग रहने से यह वैदिक साधकों के लिये उपादेय नहीं है।
21-28 यामलाष्टक: यामला शब्द का तात्पर्य है कायासिद्ध अंबा। आठ तंत्रों में यामलासिद्धि का वर्णन मिलता है। यह भी अवैदिक तंत्र है।
16- चंद्रज्ञान: इस तंत्र में 16 विद्याओं का प्रतिपादन किया गया है। फिर भी यह कापालिक मत होने के कारण हेय है। चंद्रज्ञान नाम से वैदिक-विद्या-ग्रंथ भी है परंतु वह चतु:षष्ठी तंत्र से बाहर है।
30-मालिनी विद्या: इसमें समुद्रयान का विवरण है। यह भी अवैदिक है।
31-महासंमोहन: जाग्रत मनुष्य को सुप्त यक अचेतन करने की विद्या। यह बाल जिह्यभेद आदि उपायों से सिद्ध होता है, अत: हेय है।
32-36-वामयुप्ट तंत्र : महादेव तंत्र, वातुल तंत्र, वातुलोतर तंत्र, कामिक तंत्र, ये सब मिश्र तंत्र हैं। इनमें किसी न किसी अंश में वैदिक बातें पाई जाती हैं परंतु अधिकांश में अवैदिक हैं।
37-हृद्भेद तंत्र: और गुह्यतंत्र: इसमें गुप्त रूप से प्रकृति तंत्र का भेद वर्णित हुआ है। इस विद्या के अनुष्ठान में नाना प्रकार से हिंसादि का प्रसंग है अत: यह अवैदिक है।
40 -कलावाद: इसमें चंद्रकलाओं के प्रतिपादक विषय हैं (वात्स्यायन कृत फ़ कामसूत्रफ़ आदि ग्रंथ इसी के अंतर्गत हैं।) काम, पुरूषार्थ होने पर भीकला ग्रहण और मोक्ष दस स्थान का ग्रहण और चंद्रकला सौरभ प्रभृति का उपयोग पुरूषार्थ रूप में काम्य नहीं है। इसे छोड़कर निषिद्ध आचारों का उपदेश इस ग्रंथ में है। इसका निषिद्धांश कापालिक न होने पर भी हेय है।
41-कलासार: इसमें करर्णे के उत्कर्षसाधन का उपाय वर्णित है। इस तंत्र में वामाचार का प्राधान्य है।
142-कुंडिका मत: इसमें गुटिकासिद्धि का वर्णन है। इसमें भी वामाचार का प्राधान्य है।
43-मतोतर मत: इसमें रससिद्धि (पारा आदि, आलकेमी, ॠथ्ड़ण्ड्ढथ्र्न्र्) का विवेचन है।
144-विनयाख्यर्तत्र: तिनया एक विशेष योगिनी का नाम है। इस ग्रंथ में इस यागिनी को सिद्ध करने का उपाय बतलाया गया है। किसी किसी के मत से विनया योगिनी नहीं हैं; संभोगयक्षिणी का ही नाम विंनया है।
145-त्रोतल तंत्र:इसमें घुटिका (पान पत्र, अंजन) और पादुकासिद्धि का विवरण है।
46-त्रोतलोतर तंत्र: इसमें 64,000 यक्षिणियों के दर्शन का उपाय वर्णित है।
47-पंचामृत: पृथ्वी प्रभृति पंचभूतों का मरणभाव पिंड, अड़ में कैसे संभव हो सकता है, इसका विषय इसमें है। यह भी कापालिक ग्रंथ है।
48-52 रूपभेद, भूतडामर, कुलसार, कुलोड्डिश, कुलचूडामणि, इन पाँच तंत्रों में मंत्रादि प्रयोग से शत्रु को मारने का उपाय वर्णित है। यह भी अवैदिक ग्रंथ है।
53-57 सर्वज्ञानोतर, महाकाली मत, अअरूणोश, मदनीश, विकुंठेश्वर, ये पाँच तंत्र फ़ दिगंबरफ़ संप्रदाय के ग्रंथ हैं। यह संप्रदाय कापालिक संप्रदाय का भेद है।
58-64 पूर्व, पश्चिम, उतर, दक्षिण, निरूतर, विमल, विमलोतर और देवीमत ये फ़ छपणक संप्रदायफ़ के ग्रंथ हैं।
पूर्वाक्त सक्षिप्त विवरण से पता चलता है कि ये 64 तंत्र ही जागतिक सिद्धि अथवा फललाभ के लिये हैं। पारमार्थिक कल्याण का किसी प्रकार संधान इनमें नहीं मिल सकता। लक्ष्मीधर के मतानुसार ये सभी अवैदिक हैं। इस प्रसंग में लक्ष्मीधर ने कहा है कि परमकल्यणिक परमेश्वर ने इस प्रकार के तंत्रों की अबतारणा की, यह एक प्रश्न है। इसका समाधान करने के लिये उन्होंने कहा है कि पशुपति ने ब्राह्मणा आदि चार वर्ण और ममूर्धाभिषिक्त प्रभृति अनुलोम, प्रतिलोम सब मनुष्यों के लिये तंत्रशास्त्र की रचना की थी। इसमें भी सबका अधिकार सब तंत्रों में नहीं है। ब्राह्मण आदि तीन वर्णों का अधिकार दिया गया है।
अधिकारभेद से ही वयवस्थाभेद है। पहले जो चंद्रकला विद्या की बात कही गई है वह 'चंद्रकला विज्ञान' से भिन्न है। 'चंद्रकला विद्या' के अंतर्गत चंद्रकला, जयोत्सनावती, कुलार्णव, कुलश्री, भुवनेश्वरी, बार्हस्पत्य दुर्वासामत और (?) इन सब तंत्रों का समावेश हुआ है जिनमें तीन वर्णों का अधिकार है, परंतु त्रिवर्ण विषय में अनुष्ठान का विधान दक्षिण मार्ग से ही है। शूद्रों का भी अधिकार है परंतु उनके अनुष्ठानका विधान वाम मार्ग में है। इस विद्या में मुल मार्ग, समय मार्ग का समन्वय देख पड़ता है।
शुभागम पँचक- ये पाँच आगम समय मार्ग के अंतर्गत हैं। इनमें नाम हैं - वसिष्ठ संहिता, सनक संहिता, सनंदन संहिता, शुकसंहिता सनतकुमार संहिता। ये सब वैदिक मार्गाश्वयी है। वसिष्ठादि पाँच मुनि इस मार्ग के प्रदर्शक हैं। इसका प्रवर्तन 'समयाचार' के आधार पर हुआ था। लक्ष्मीधर का कथन है कि शंकराचार्य स्वयं समयाचार का अनुरण करते थे। शुभागम पंचक शुद्ध समय मार्ग का प्रतिपादन करते हैं। दसमें षोडश नित्याओं का प्रतिपादन मूल विद्या के अंतर्गत स्वीकार करते हुए किया गया है। इसलिये इसे 'अंग विद्या' के रूप में ग्रहण किया जाता है। परंतु चतु:षष्ठी विद्या के अंतर्भुक्त चंद्रज्ञान विद्या में षोडश लित्याओं का प्राधान्य माना गया है। इसलिये इसे 'कौलमार्ग' कहा जाता है। पहले जो स्वतंत्र तंत्र की बात कही गई है - जिसका उल्लेख 'सौंदर्यलहरी' में मिलता है- उसके विषय में भास्कर राय के 'सेतुबंध' में कहा गया है कि वह 'वामकेशतंत्र' हो सकता है। नित्याषेडशार्णव इस तंत्र के ही अंतर्भुक्त है। सौंदर्यलहरी के टीकाकार गौरीकॉत ने कहा है कि 64 तंत्र के अतिरिक्त एक मित्र है वह 'ज्ञानार्णाव' हो सकता है परंतु दूसरे संप्रदाय के मतानुसार सवतंत्र विशेषण से प्रतीत होता है कि वह 'तंत्रराज' नामक विशिष्ट तंत्र का द्योतक है।
नवचतु:षष्ठी तंत्र
तोडलतंत्र में 64 तंत्रों के नाम दिए गए हैं। इस नामसूची को आधुलिक मानना समीचीन है। सर्वानंद ने अपने 'सर्वोल्लास तंत्र' में 'तोडल तंत्र' के ये नाम दिए हैं। इस सूची की आलोचना से जान पड़ता है कि यह चतु:शती की सूची से विलक्षण है ही, 'श्रीकंठी' सूची से भी विलक्षण है। सर्वोल्लासोद्धृत ताडलतंत्र में जो सूची मिलती है वह इस प्रकार है- काली, मुंडमाला, तारा, तनर्वाण, शिवसार, वीर निदश्र्न, लतार्चन, ताउल, नील, राधा, विद्यासार, भैरव, भैरवी, सिद्धेश्वर, मातृभेद, समया, गुप्तसाधक, माया, महामाया, अक्षया, कुमारी, कुलार्णव, कालिकाकुलसर्वस्व, कालिकाकला, वाराही, योगिनी, योगिनीहृदय, सनतकूमार, त्रिपुरासार, योगिनीनिजय, मालिनी, कुक्कुट, श्रीगणेश, भूत, उड्डीश, कामधेनु, उतर, वीरभद्र, वामकेश्वर, कुलचूडाभणि, भावचूड़ामणि, ज्ञानार्णव, वरदा, तंत्रचिंतामणि, विरूणीविलास, हंसतुत्र, चिदंबरतंत्र, श्वेतवारिध, नित्या, उतरा, नारायणी, ज्ञानदीप, गौतमीय, तनरूतर, गर्जन, कुब्जिका, तत्रमुंक्तावली, बृहदश्रीक्रम, स्वतंत्रयोनि, मायाख्या।
दाशरथी तंत्र के द्वितीय अध्याय में 64 तंत्रों का नामोल्लेख पाया जाता है। यह सूची पहली से कुछ भिन्न है। इंडिया ॲफिस लाइब्रेरी, लंदन में दाशरथी तंत्र की हस्तलिखित पुस्तक (मैनुस्क्रिप्ट) है जिसका लिपिकाल 1676 शकाब्द अर्थात् 1754 ई0 है। हरिवंश में लिखा है कि श्रीकृष्ण ने 64 अद्वैततंत्रों का दुर्वासा के निकट अध्ययन किया था। (दे0 अभिनव गुप्त : के0सी0 पांडेय द्वारा प्रकाशित, पृ0 55)। ऐसी प्रसिद्धि है कि दुर्वासा ही कलियुग में अद्वैत तंत्र नामक ग्रंथ तंत्रसाहित्य के विषय में काफी सूचनाएँ देता है। इसके 41 वें अध्याय में कहा गया है कि यामल आठ प्रकार के हैं- इन आठों का मूल ब्रह्म यामल है। और यामलों में रूद्र यामल, यम यामल, स्कंद यामल, वायु यामल और इंद्र यामल क नाम मिलता है (जयद्रथ यामल के 30 वें अध्याय में; दे0- विद्यापिठ की तंत्रसूची)
इनके नाम निश्वास तंत्र में नहीं हैं, ब्रह्मयामल में हैं। यामलाष्टक के अनुसार मंगलाष्टक, चक्राष्टक, शिखाष्टक प्रभृति तंत्रों का नाम जयद्रथयामल मे दिखाई पड़ता है। उसमें सद्भाव मंगला, का नाम भी है। मंगलाष्टक में भैरव, चंद्रगर्भ, सुमंगला, सर्वमंगला, विजया, उग्रमंगला और सद्भाव मंगला के नाम हैं। चक्राष्टक में षट्चक्र का वर्णन, वर्णनाड़ी, गुह्यक, कालचक्र, सौरचक्र, प्रभृति के नाम हैं। शिखाष्टक में शौंज्यि, महाशुषमा, भैरवी, शाब्री, प्रपंचकी, मातृभेदी, रूद्रकाली प्रभृति का नाम आता है।
'जयद्रथ यामल' के 36 वें अध्याय में विद्यापीठ के तंत्रों के नाम दिए गए हैं- सर्ववीर, (समायोग) सिद्धयोगीश्वरी मत, पंचामृत, विषाद, योगिनी जाल शंबर, विद्याभेद, शिरच्छेद, महासंमोहन, महारौद्र, रूद्रयामल, विष्णुयामल, रूद्रभेद, हरियामल, स्कंद गौतमी, इत्यादि।
जयद्रथ यामल की एक पुस्तक नैपाल दरबार के ग्रंथगार में रखी हुई है। उक्त ग्रंथागार में 'पिंगलामत' की 1175 ई0 की लिखी हुई एक पुस्तक है। इसे ब्रह्मयामल का परिशिष्ट मानते हैं। इसमें जयद्रथ यामल के विषय में लिखा है।
Tuesday, 1 March 2016
64 तंत्रों के नाम
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