Friday, 25 September 2015

Gyan gaytri ka

 गायत्री

जो कार्य योगी बड़ी कष्ट दायक साधनाओं / तपस्या से बहुत अधिक समय में पूरा कर पाते हैं, वह महान कार्य बड़ी सरल रीति से गायत्री के जप एवं ध्यान मात्र से स्वल्प समय में पूरा हो जाता है~

1. सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने गायत्री का चित्रण पंचमुखी और दसभुजी रूप में किया है।
महाकाल स्तोत्रं :-
इस स्तोत्र को भगवान् महाकाल ने खुद भैरवी को बताया था. इसकी महिमा का जितना वर्णन किया जाये कम है. इसमें भगवान् महाकाल के विभिन्न नामों का वर्णन करते हुए उनकी स्तुति की गयी है . शिव भक्तों के लिए यह स्तोत्र वरदान स्वरुप है . नित्य एक बार जप भी साधक के अन्दर शक्ति तत्त्व और वीर तत्त्व जाग्रत कर देता है . मन में प्रफुल्लता आ जाती है . भगवान् शिव की साधना में यदि इसका एक बार जप कर लिया जाये तो सफलता की सम्भावना बड जाती है .
ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पते
महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते
महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो
महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते
महाकाल महाज्ञान महाकाल तमोपहन
महाकाल महाकाल महाकाल नमोस्तुते
भवाय च नमस्तुभ्यं शर्वाय च नमो नमः
रुद्राय च नमस्तुभ्यं पशुना पतये नमः
उग्राय च नमस्तुभ्यं महादेवाय वै नमः
भीमाय च नमस्तुभ्यं मिशानाया नमो नमः
ईश्वराय नमस्तुभ्यं तत्पुरुषाय वै नमः
सघोजात नमस्तुभ्यं शुक्ल वर्ण नमो नमः
अधः काल अग्नि रुद्राय रूद्र रूप आय वै नमः
स्थितुपति लयानाम च हेतु रूपआय वै नमः
परमेश्वर रूप स्तवं नील कंठ नमोस्तुते
पवनाय नमतुभ्यम हुताशन नमोस्तुते
सोम रूप नमस्तुभ्यं सूर्य रूप नमोस्तुते
यजमान नमस्तुभ्यं अकाशाया नमो नमः
सर्व रूप नमस्तुभ्यं विश्व रूप नमोस्तुते
ब्रहम रूप नमस्तुभ्यं विष्णु रूप नमोस्तुते
रूद्र रूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोस्तुते
स्थावराय नमस्तुभ्यं जंघमाय नमो नमः
नमः उभय रूपा भ्याम शाश्वताय नमो नमः
हुं हुंकार नमस्तुभ्यं निष्कलाय नमो नमः
सचिदानंद रूपआय महाकालाय ते नमः
प्रसीद में नमो नित्यं मेघ वर्ण नमोस्तुते
प्रसीद में महेशान दिग्वासाया नमो नमः
ॐ ह्रीं माया - स्वरूपाय सच्चिदानंद तेजसे
स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय सोऽहं हंसाय ते नमः
फल श्रुति
इत्येवं देव देवस्य मह्कालासय भैरवी
कीर्तितम पूजनं सम्यक सधाकानाम सुखावहम
मन्त्र के यही पाँच भाग गायत्री के पाँच मुख हैं।

पाँच देव भी इन पाँच मुखों के प्रतीक हैं। पाँच तत्वों से बना हुआ शरीर और पाँच प्राण, पाँच उप- प्राण, पाँच यज्ञ, पाँच अग्नि, पंच-क्लेश आदि अनेक पंचकों का रहस्य, मर्म और तत्व ज्ञान गायत्री के मुख से मुखरित होता है।

2. जैसे पूर्व, पश्चिम आदि 10 दिशाएं होती हैं - वैसे ही जीवन विकास की दस दिशाएं हैं। पाँच सांसारिक लाभ (स्वास्थ्य, धन,विद्या, चातुर्य और दूसरों का सहयोग प्राप्त करना) गायत्री की वाँईं पाँच भुजाएं हैं। इसी प्रकार पाँच आत्मिक लाभ (आत्म-ज्ञान, आत्म-दर्शन, आत्म-अनुभव, आत्म-लाभ और आत्म-कल्याण) दाहिनी पाँच भुजाएं हैं।

3. यद्यपि यह गायत्री का भावना चित्र है- अलंकारिक रूप है, जिससे यह प्रकट होता है कि गायत्री में कितने प्रकार के रहस्य छिपे हैं। वास्तव में तो माता शक्ति रूप हैं - उनका कोई रूप नहीं। वह शब्द,रूप आदि पंचभौतिक तत्वों से परे हैं।

केवल ध्यान द्वारा उसको अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किसी रूप या प्रतिमा की धारणा की जाती है। संसार का ऐसा कोई कष्ट नहीं जो गायत्री माता की कृपा से न कट सके और विश्व की ऐसी कोई वस्तु नहीं जो माता के अनुग्रह से प्राप्त न हो सके।

4. साधक किस प्रयोजन के लिए गायत्री की साधना, ध्यान, जप करना चाहता है - इस बात को दृष्टि में रख कर गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों की दिव्य शक्ति धाराओं को संलग्न चित्रों में अलग-अलग रूपों में दिखाया गया है।

माता के किस स्वरूप का किस कार्य के लिए किस प्रकार ध्यान करना चाहिए इन चित्रों से स्पष्ट हो जाता है।

5. गायत्री-माता का मनुष्य शरीर में जब प्रवेश होता है तो वह सद्बुद्धि रूप में होता है। साधक के विचार और स्वभाव में धीरे-धीरे सतोगुण बढता है और उसमें सतोगुणी प्रवृतियों का विकास होता है।

6. साधक और ईश्वर सत्ता गायत्री माता के बीच में बहुत दूरी है, लम्बा फासला है। इस दूरी को हटाने का मार्ग इन 24 अक्षरों के मन्त्र से होता है।

जैसे जमीन पर खड़ा हुआ मनुष्य सीढ़ी की सहायता से ऊँची छत पर पहुँच जाता है वैसे ही गायत्री का उपासक इन 24 अक्षरों की सहायता से क्रमशः एक- एक भूमिका पार करता हुआ, ऊपर चढ़ता है और माता के निकट पहुँच जाता है।

7. शिव को योगेश्वर भी कहते हैं। योग की समस्त शक्तियों और सिद्धियों के उद्गम केन्द्र वे ही हैं। मस्तक पर चन्द्रमा तत्वज्ञान का प्रतिनिधि है। गले में सर्पों का होना-दुष्ट और पतितों को भी गले से लगाने की साधुता का द्योतक है।

वृषभ वाहन मजबूती, दृढ़ता, स्थिर चित्त,श्रम शीलता एवं पवित्रता का प्रतीक है। शिव इन्हीं गुणों के समूह हैं। वे संहारक हैं - दोष, दुर्गुण, अनाचार, अविचार और अनुपयुुक्तता का संहार करते हैं। अनावश्यक का निवारण और संहार करने का कार्य ईश्वर के शिव स्वरूप द्वारा होता है।

8. गायत्री के शाम्भवी स्वरूप की साधना से जो गुण शिव के हैं, शाम्भवी के हैं उन्हीं का प्रसाद साधक को भी मिलता है। शिव के तीन नेत्र हैं। तीसरा नेत्र जिसे 'दिव्य चक्षु' कहते हैं, आत्म तेज से परिपूर्ण होता है। शाम्भवी स्वरूप की साधना करने से उपासक का यही तीसरा नेत्र खुलता है और उसे दिव्य-दृष्टि प्राप्त होती है।

9. पूर्ण रूप से प्रारब्ध परिवर्तन तो असम्भव है - पर माता की कृपा से इसमें अनेक संशोधन और परिवर्तन हो सकते हैं। भविष्य के लिए उत्तम भाग्य निर्माण हो सकता है। माता की कृपा से कठिन दुख दायी प्रारब्धों में संशोधन हो जाता है।
अत्यन्त दुस्तर और असह्य कष्टों की यातना हल्की होकर बड़ी सरल रीति से भुगत जाती हैं।

10. ऐश्वर्य वर्द्धिनी लक्ष्मी की प्राप्ति, महाशत्रुओं से संरक्षण, अदृश्य सहायता प्राप्त करने, पारिवारिक सुःख - शान्ति व सन्तुष्ट दाम्पत्य जीवन, अच्छी सन्तान प्राप्त करने सहित जितने भी अच्छे मनोरथ हों - चित्रों में दिखाए माता के उन स्वरूपों की साधना,ध्यान, जप से उन्हें पूर्ण किया जा सकता है।
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